रविवार, 13 जून 2010

जिन्दगी- एक नदी

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जिन्दगी एक नदी की तरह है जो बस चलती जाती है कभी तेज तो कभी आहिस्ता1 नदी की तरह जिन्दगी भी कभी रुकती नही, रुक जाते हैं तो बस इंसान शायद हमारी फितरत ही ऐसी है कि हमारे जज्बात किनारे की रेत की तरह पानी के बहाव मे नही बह जाते अपितू नदी के सीने मे उभरी शिला की तरह जड़ होते हैं, स्थिर होते हैं1 फिर जिन्दगी की रफ्तार से उत्पन्न कम्पन धीरे धीरे उसमे चेतना जगाती है और चेतन मन उस शिला पर बैठ कर बहाव को रोक लेना चाहता है पर नादान नही जानता की कल जब जिन्दगी क बहाव बढ़ जायेगा तो उसका अस्तित्व ही मिट जायेगा जिन्दगी उसे रौन्द कर बस चलती जायेगी नहीं देखेगी कि रास्ते पर जज्बात बिखरे जाते हैं बस कुछ निशान से दे जायेगी अपने होने का और जब बहाव कम होने पर वह उभरेगा तो बहुत कुछ होगा और जो हमने पाया होगा कुछ मलिन सा रौंदा हुआ जिंदगी के उस बहाव से जो अभी दूर किसी और शिला पर जाकर थोड़ा रुक कर आगे बह गया........


                                                                                                 सु-मन
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