सोमवार, 13 दिसंबर 2010

‘कनुप्रिया’ समुद्र-स्वप्न.........धरमवीर भारती (4)

समुद्र-स्वप्न
कनुप्रिया (अंश)

जिस की शेषशय्या पर
तुम्हारे साथ युगों-युगों तक क्रीड़ा की है

आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु!

लहरों के नीले अवगुण्ठन में
जहाँ सिन्दूरी गुलाब जैसा सूरज खिलता था
वहाँ सैकड़ों निष्फल सीपियाँ छटपटा रही है
          -

और तुम मौन हो
मैंने देखा कि अगणित विक्षुब्ध विक्रान्त लहरें
फेन का शिरस्राण पहने
सिवार का कवच धारण किये
निर्जीव मछलियों के धनुष लिये
युद्धमुद्रा में आतुर हैं
              -

और तुम कभी मध्यस्थ हो                           
 कभी तटस्थ                           
 कभी युधरत

और मैं ने देख कि अन्त में तुम
थक कर
इन सब से खिन्न
, उदासीन,
विस्मित और
कुछ-कुछ आहत
मेरे कन्धों से टिक कर बैठ गये हो
और तुम्हारी अनमनी भटकती उँगलियाँ
तट की गीली बालू पर
कभी कुछ
,
कभी कुछ लिख देती हैं         
किसी उपलब्धि को व्यक्त करने के अभिप्राय से नहीं;
मात्र उँगलियों को ठण्डे जल में डुबोने का         
क्षणिक सुख लेने के लिए!

आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु!

विष भरे फेन
, निर्जीव सूर्य, निष्फल सीपियाँ,
निर्जीव मछलियाँ ......
- लहरें नियन्त्रणहीन होती जा रही हैं
 

और तुम तट पर बाँह उठा-उठा कर कुछ कहे जा रहे हो 
पर तुम्हारी कोई नहीं सुनता, कोई नहीं सुनता!

अन्त में तुम हार कर
, लौट कर,
थक कर
मेरे वक्ष के गहराव में
अपना चौड़ा माथा रख कर
गहरी नींद में सो गये हो .....
और मेरे वक्ष का गहराव
समुद्र में बहता हुआ
, बड़ा-सा ताजा, क्वाँरा, मुलायम,
गुलाबी 
पटपत्र बन गया है         
जिस पर तुम छोटे-से छौने की भांति
लहरों के पालने में महाप्रलय के बाद सो रहे हो!         
नींद में तुम्हारे होठ धीरे-धीरे हिलते हैं         
"स्वधर्म! ........ आखिर मेरे लिए स्वधर्म क्या है?"
          और लहरें थपक दे कर तुम्हे सुलाती हैं         
"सो जाओ योगिराज .... सो जाओ ..... निद्रा
समाधि है!"         
नींद में तुम्हारे होठ धीरे-धीरे हिलते हैं         
"न्याय-अन्याय, सद्-असद्, विवेक-अविवेक -         
 कसौटी क्या है? आखिर कसौटी क्या है?"
          और लहरें थपकी दे कर तुम्हें सुला देती हैं         
"सो जाओ योगेश्वर ........ जागरण स्वप्न है,
                                छलना है, मिथ्या है!"

तुम्हारे माथे पर पसीना झलक आया है
और होंठ काँप रहे हैं
और तुम चौंक कर जाग जाते हो
और तुम्हें कोई भी कसौटी नहीं मिलती
और जुए के पाँसे की तरह तुम निर्णय को फेंक देते हो

जो मेरे पैताने है वह स्वधर्म
जो मेरे सिरहाने है वह अधर्म ........         
और यह सुनते ही लहरें         
घायल साँपों-सी लहर लेने लगती है         
 और प्रलय फिर शुरू हो जाता है

और तुम फिर उदास हो कर किनारे बैठ जाते हो
और विषादपूर्ण दृष्टि से शून्य में देखते हुए
कहते हो - "यदि कहीं उस दिन मेरे पैताने
दुर्योधन होता तो ..................... आह
इस विराट् समुद्र के किनारे ओ अर्जुन
,
मैं भी
अबोध बालक हूँ!
         

 आज मैंने समुद्र को स्वप्न में देखा कनु!

तट पर जल-देवदारुओं में
बार-बार कण्ठ खोलती हुई हवा
के गूँगे झकोरे
,

बालू पर अपने पगचिन्ह बनाने के करुण प्रयास में
बैसाखियों पर चलता हुआ इतिहास
,
...... लहरों में तुम्हारे श्लोकों से अभिमन्त्रित गाण्डीव
गले हुए सिवार-सा उतरा आया है ......
           
और अब तुम तटस्थ हो और उदास

समुद्र के किनारे
नारियल का कुंज है
और तुम एक बूढ़े पीपल के नीचे चुपचाप बैठे हो
         

 मौन, परिशमित, विरक्त         
और पहली बार जैसे तुम्हारी अक्षय तरुणाई पर         
थकान छा रही है!

और चारों ओर
एक खिन्न दृष्टि से देख कर
एक गहरी साँस लेकर
तुम ने असफल इतिहास को
जीर्णवसन की भाँति त्याग दिया है
         

और इस क्षण         
 केवल अपने में डूबे हुए         
दर्द में पके हुए         
तुम्हें बहुत दिन बाद मेरी याद आयी है!

काँपती हुई दीप लौ जैसे
पीपल के पत्ते
एक-एक कर बुझ गये
         


उतरता हुआ अँधियारा ......

समुद्र की लहरें अब तुम्हारी फैली हुई साँवरी शिथिल बाँहें हैं
भटकती सीपियाँ तुम्हारे काँपते अधर

और अब इस क्षण तुम
केवल एक भरी हुई
पकी हुई
गहरी पुकार हो ..........
         

सब त्याग कर         
 मेरे लिए भटकती हुई ......
         
- धर्मवीर भारती

3 comments:

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

धर्मवीर भारती जी की अमूल्य रचना.
प्रस्तुत करने के लिए बधाई.

JAGDISH BALI ने कहा…

आनन्दित हुआ ! आभार !

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι ने कहा…

आदरणीय भारती जी की भाव पूर्ण कविता पोस्ट करने के लिये आभार व बधाई

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