बात बहुत अजीब है पर सच्ची है। रिश्ते
की गहराई में दुख भी उतना ही गहरा होता है। जितना गहरा रिश्ता उतना ही गहरा दुख | दिखता
नहीं है पर दबा होता है कहीं, किसी कोने में | जैसे- जैसे रिश्ता गहराता जाता है
दुख भी प्रकट होने लगता है धीरे-धीरे | रिश्ता जब धीरे-धीरे अपनी पकड़ पाने लगता है
तभी असल में उस रिश्ते से हमारा परिचय होने लगता है , धुन्ध छंटने लगती है , सब
खुलने लगता है तो जान पाते हैं कि जो था एक छलावा था , भ्रम था पर तब तक इंसान उस
रिश्ते में कई पड़ाव जी चुका होता हैं | जब तक किसी रिश्ते से दुख नहीं जुड़ा वो
रिश्ता है ही कहाँ , उसका अस्तित्व ही नहीं , वो रिश्ता अभी पका ही नहीं , बीज अभी
फूटा ही नहीं ,कोंपलें ही नही आई , खुशबू फैली ही नहीं तो रिश्ता है कहाँ.. कहीं
नहीं | रिश्ता जब धीरे-धीरे परिपक्व होगा गहराएगा तभी तो अनुभूति होगी पहचान होगी
उस रिश्ते से | साफ तस्वीर तो तभी नज़र आएगी | दिखेगा रिश्ता क्या कुछ समेटे था
अपने अन्दर जो अभी तक गुम था अब सामने है |
रिश्ता जब बन्धता है तब इंसान
एक तालाब की तरह होता है ,शांत है वो , अभी पूर्ण रूप से बन्धा नहीं है किसी से | उसने
जाना ही नहीं कि रिश्ते का तानाबाना क्या है | वो बस शांत है | पर जब रिश्ता बन्ध
गया तो वो उस रिश्ते में जीने लगता है साथ-साथ | तब उसकी स्थिति एक नदी की तरह
होती है , कहीं पर शांत कहीं पर हलचल | मन किया तो चल दिये एक दो कदम रिश्ते में
बन्धते हुए न मन किया तो ठहरे रहे | धीरे-धीरे इंसान गति पकड़ लेता है रिश्ते में
डूबता जाता है | फिर वो स्थिति आ जाती है रिश्ता गहनता की चरम सीमा पर होता है तो
इंसान की स्थिति एक समुद्र सी हो जाती है | बाहर से हलचल अन्दर से शांत | अजीब सी
लगती है ये बात शायद कि जब इंसान अन्दर आत्मिक रूप से शांत है बाहरी हलचल से क्या फर्क पड़ेगा | फर्क पड़ता है
| Our external feeling depends upon internal depth . बाहरी आवेश का जुड़ाव है
कहीं अन्दर से , जो कुछ निकला बाहर वो कहीं न कहीं अन्दर दबा पड़ा है | अन्दर वो
शांत रह कर सिवाए अपने को दुख नहीं तो क्या दे रहा है और बाहरी हलचल उस रिश्ते से
मिले दुख का विरोधाभास नहीं तो क्या है ||
सु-मन