बुधवार, 22 दिसंबर 2010

गहनता ही दुख का मूल कारण

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 बात बहुत अजीब है पर सच्ची है। रिश्ते की गहराई में दुख भी उतना ही गहरा होता है। जितना गहरा रिश्ता उतना ही गहरा दुख। दिखता नहीं है , दबा होता है कहीं ...किसी कोने में। जैसे- जैसे रिश्ता गहराता जाता है दुख भी प्रकट होने लगता है धीरे-धीरे। रिश्ता जब धीरे-धीरे अपनी पकड़ पाने लगता है तभी असल में उस रिश्ते से हमारा परिचय होने लगता है,धुन्ध छंटने लगती है...सब खुलने लगता है तो जान पाते हैं कि जो था एक छलावा था , भ्रम था पर तब तक इंसान उस रिश्ते में कई पड़ाव जी चुका होता हैं। जब तक किसी रिश्ते से दुख नहीं जुड़ा वो रिश्ता है ही कहाँ...उसका अस्तित्व ही नहीं...वो रिश्ता अभी पका ही नहीं ..बीज अभी फूटा ही नहीं ..कोंपलें ही नही आई..खुशबू फैली ही नहीं तो रिश्ता है कहाँ कहीं नहीं। रिश्ता जब धीरे-धीरे परिपक्व होगा गहराएगा तभी तो अनुभूति होगी पहचान होगी उस रिश्ते से। साफ तस्वीर तो तभी नज़र आएगी। दिखेगा रिश्ता क्या कुछ समेटे था अपने अन्दर जो अभी तक गुम था अब सामने है।
                  रिश्ता जब बन्धता है तब इंसान एक तालाब की तरह होता है.....शांत है वो....अभी पूर्ण रूप से बन्धा नहीं है किसी से । उसने जाना ही नहीं कि रिश्ते का तानाबाना क्या है। वो बस शांत है । पर जब रिश्ता बन्ध गया तो वो उस रिश्ते में जीने लगता है साथ-साथ । तब उसकी स्थिति लगभग एक नदी की तरह होती है। कहीं पर शांत कहीं पर हलचल । मन किया तो चल दिये एक दो कदम रिश्ते में बन्धते हुए न मन किया तो ठहरे रहे । धीरे-धीरे इंसान गति पकड़ लेता है रिश्ते में डूबता जाता है। फिर वो स्थिति आ जाती है रिश्ता गहनता की चरम सीमा पर होता है तो इंसान की स्थिति एक समुद्र सी हो जाती है । बाहर से हलचल अन्दर से शांत । शायद अजीब सी लगती है ये बात कि जब इंसान अन्दर आत्मिक रूप से शांत है तो बाहरी हलचल से क्या फर्क पड़ेगा..पड़ेगा फर्क पड़ेगा । Our external feeling depends upon internal depth .बाहरी आवेश का जुड़ाव है कहीं अन्दर से । जो कुछ निकला बाहर वो कहीं न कहीं अन्दर दबा पड़ा है । अन्दर वो शांत रह कर सिवाए अपने को दुख नहीं तो क्या दे रहा है और बाहरी हलचल उस रिश्ते से मिले दुख का विरोधाभास नहीं तो क्या है ।
                                                                  सु-मन
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