शुक्रवार, 14 मई 2010

आस्था की डोर – चैरा

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हिम का आंचल यानि हिमाचल के कुल्लू-मनाली, शिमला, डलहौजी आदि विख्यात पर्यटन स्थलों को तो आम तौर पर सैलानी जानते ही हैं लेकिन इस हिमाचल में कहीं कुछ ऐसे भी अनछुए स्थल हैं जहां सैलानी अभी तक नहीं पहुंच पाए हैं। ऐसे ही एक स्थल पर मुझे पिछले साल जून में जाने का मौका मिला। इस स्थल का नाम है “चैरा” देव माहूँनाग का मूल स्थान ।इस स्थान की विशेषता यह है कि यहां स्थित माहूँनाग जी के मन्दिर का दरवाजा हर महिने की संक्रांति को ही खुलता है और यही नहीं उसे खोलने के लिये बकरे की बलि भी देनी पड़ती है यह जानकर मन में बहुत उत्सुकता हुई और हमने संक्रांति के समय वहां जाने का प्रोग्राम बनाया 1 यह स्थान हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के करसोग उपमंडल में है। तो चलिए चलते हैं चैरा की अविस्मणीय यात्रा पर। जो रहस्य, रोमांच, मस्ती, व साहस से परिपूर्ण है।
                                                  मंडी
 हमारी यात्रा शुरू होती है मंडी शहर से । व्यास नदी के किनारे स्थित ये मंडी शहर कुल्लू मनाली के रास्ते में ही है। मंडी से हमने अपनी यात्रा टाटा सूमों पर शुरू की। क्योंकि जिस स्थान पर हम जा रहे थे वहां छोटी कार ले जाना संभव नहीं था। यात्रा में जोखिम और कठिनाईयां भी होंगी , इसकी जानकारी हमने तभी हासिल कर ली थी जब हम चैरा घूमने का प्रोग्राम बना रहे थे। यह एक पारिवारिक यात्रा थी और हमारे साथ 4 छोटे बच्चे भी थे जिनकी आयु 5 से 13 तक की थी। सफर शुरू हुआ , धीरे धीरे गंतव्य की ओर कदम बढ़ने लगे । करीब 30 कि.मी. के सफर के बाद बहुत ही सुन्दर गांव आया “चैल चौक” यहाँ पर चील के हरे भरे जंगल दिखे तो शिथिल पड़ी आँखों को तरलता का भान हुआ । वहाँ पर चाय पीकर आगे की यात्रा आरम्भ की । धीरे धीरे गाड़ी उस पहाड़ी रास्ते पर चल रही थी और हमारी आँखें खिड़की से बाहर प्राकृतिक सुन्दरता की गलियों में विचरण कर रही थी । गर्मियों के दिन थे सूरज अपने पूरे सरूर पर था परंतु कहीं पर वृक्ष इतने घने थे कि सूरज की किरणें भी उनसे रास्ता मांगती प्रतीत होती थी । आगे एक के बाद एक ठहराव आते गये जिनमें चुराग,पांगणा,चिंडी आदि प्रमुख हैं । चिन्डी का रेस्ट हाऊस एक ऐसा आराम गृह है जो शरीर के साथ साथ रूह को भी सकून देता है क्योंकि यहां चारों ओर देखने पर नैसर्गिक सुन्दरता नज़र आती है । अब धीरे धीरे गंतव्य से दूरी घटने लगी थी और मंजिल को देखने की चाहत बढ़ने लगी थी क्योंकि अभी तक वो अनदेखा स्थान सिर्फ हमारी कल्पनाओं में था और जैसे कल्पना का पंछी झट से उड़ कर गगन को छू लेना चाहता है वैसे ही हमारा मन भी उस स्थान से जुड़े पहलुओं को जानने के लिये बेचैन था । अंत में हम करसोग पहुँच जाते हैं और वहां पर स्थित ममलेश्वर महादेव और कामाक्षा देवी के दर्शन करते हैं । सच मानो तो यात्रा तो अब शुरु होती है । वहां से 2-3 कि.मी. आगे जाने पर ‘करोल’ नाम का गांव आता है और यहां पर गाड़ी छोड़ कर सारा सामान अपने साथ लेकर हम अपनी पगयात्रा शुरू करते हैं चैरा की ओर । धीरे-धीरे कदम बढ़ने लगते है गंतव्य की ओर , रास्ते के नाम पर सिर्फ 3 फ़ुट की पगडंडी थी कहीं पर सीधी कहीं पर घुमावदार । करीब 2 पहाड़ इसी पगडंडी द्वारा तय करने के बाद एक घर नज़र आने लगता है प्यासे होठों को तरलता का आभास होने लगता है क्योंकि गर्मी के मौसम होने के कारण प्यास अधिक लग रही थी । अब तक हमारे पास साथ में लाया हुआ पानी खत्म हो चुका था । उस घर के लोगों ने हम अपरीचित जनों का खुले दिल से स्वागत किया और पीने को पानी दिया । कुछ देर आराम करके फिर से चलना शुरू किया तो कुछ दूरी तय करने के बाद इस यात्रा का अंतिम आश्रय एक छोटी सी दुकान आई जहाँ पर जरूरत की कुछ चीजें ही उपलब्ध थी । हमने भी अपने सामान को टटोल कर जरूरत की सभी चीजों का जायजा लिया क्योंकि इसके बाद सफर में हमें अपने पास रखी हुई चीजों पर ही निर्भर रहना था । वहां से एक नाले के साथ-2 नीचे चलते – चलते हम “अमला विमला” खड्ड में पहुंच गए । अभी मंजिल तक पहुंचने के लिये इसी खड्ड को हमें 14 बार लांघना था । यहां पर दूरभाष से भी सम्पर्क कट जाता है और रह जाते है सिर्फ हम , प्रकृति के मनभावन नजारे और हमारे विचार जो खुले आसमां के नीचे पहाड़ों की ऊंची ऊंची चोटियों पर किसी बादल की तरह उमड़ते घुमड़ते हुए एक अद्भुत अलौकिक आनंद की ओर ले जाते हैं ।
यहां प्रकृति हर कदम पर बिल्कुल नए रंग दिखा रही थी । कहीं पर पहाड़ बहुत हरे भरे थे तो कहीं पर बस पत्थर की बनावट सी प्रतीत होती थी1उन पहाड़ो में कुछ कन्दराएं थी जो उन लोगों के लिये रहने का ठिकाना थी जो अपने पशुओं,भेड़ बकरियों को चराने के लिये कई दिनों घर से बाहर रहते हैं । इसी जगह पर एक तूफानी चक्रवात ने हमें घेर लिया और हम पत्तों की तरह लहराते हुए गिर पड़े तब यही कन्दराएं हमारा सहारा बनी । कुछ दूरी तय करने पर केले का बागीचा नजर आया क्रमबद्ध अनेक केले के पेड़ । हम इस वक्त तक 3 बार खड्ड पार कर चुके थे और पानी की धारा के साथ-2 सफर करते करते ये पहाड़, ये पानी की हलचल, चट्टाने हमारे साथी बन गए थे अब खड्ड को पार करते हुए डर नही अपितु आनन्द की अनुभूति होने लगी थी ।
यात्रा का हर पहलू रोमांच से भरपूर हो तो अपना ही आनन्द है । ऐसे ही पानी की धारा के साथ साथ सफर चलता रहा बीच में एक नज़ारा अनुपम था । वहां के स्थानीय लोगों द्वारा सिंचाई के लिये पानी को एकत्रित किया गया था और बीच में 1-2 फुट की दूरी पर पत्थर रख कर चलने के लिये रास्ता बनाया गया था । छोटे बच्चों के साथ उस स्थान पर थोड़ी कठिनाई महसूस हुई परंतु जाने क्या था कि ये नन्हे बालक इतने कठिन रास्ते पर भी मस्ती के साथ चल रहे थे शायद ये वो दैवीय शक्ति थी जिसके आगोश में हम जा रहे थे । पानी ठहराव लिये हुए दर्पण की भांति नजर आ रहा था , अपने अन्दर काफी कुछ समेटे बाहर से शांत और अन्दर से उतना व्याकुल । दोनों तरफ के गगनचुम्बी पहाड़ के साये , उस ठहरे पानी में प्रतिबिम्ब बनाए , एक दम उन्नत खड़े थे आकाश की ओर और पानी उनकी विशालता को अपने अन्दर समेटे मौन था ।
 हम बस आगे बढ़ते जा रहे थे अभी प्रकृति काफी रहस्यों के उदघाटन करने वाली थी । आगे बढ़ने पर पहाड़ का अनोखा रूप मिला बस मिट्टी की रंगत सी दिखती थी नीचे पानी के बहाव से पहाड़ घिस गए थे और बीच में ऐसे प्रतीत होते थे मानों पत्थरों की चिनाई करके एक दीवार सी बनाई गई हो । एक पल में पहाड़ की टूटन का आभास होता था तो अगले पल पत्थरों के जुड़ाव का । पहाड़ ने ये रूप कैसे पाया ये सोच कर हैरानगी होती है । इंसान अपनी कृति पर कितना ही नाज़ करे परंतु प्रकृति का मुकाबला नहीं कर सकता ।
खड्ड आर पार करने का सिलसिला यूं ही चलता रहा और ऐसे ही रास्ता कटता रहा बहुत सारे स्मरणीय पलों के साथ और मंजिल के अंतिम पडाव के नज़दीक पहुँचने पर देखते हैं कि वहां फिर से केले का बगीचा है ऐसा प्रतीत हुआ मानो वहां भगवान विष्णु का साक्षात वास हो परंतु जब खेतों पर नजर डाली तो वो खाली थे शायद सुविधाओं के अभाव के कारण ऐसा था । अब अंत में जिस खड्ड को हम चट्टानों से पार करते आये थे उसे हमने एक छोटे से पुल से पार किया और पहुँच गए ‘देव माहूँनाग’ के मूल स्थान ‘चैरा’ । जिसके लिये 4 घण्टे की पगयात्रा करके आये थे ।मन्दिर का द्वार बन्द था जो अगले दिन सक्रान्ति को खुलना था । मन्दिर के साथ ही दो कमरे थे जिनका फर्श लकड़ी का था और दिवारें मिट्टी की । ये हमारा रात का आश्रय स्थल था । यह 4-5 घरों का ही गांव था जहां सुविधाओं की बहुत कमी थी फिर भी वहां के लोगों ने हमें कम्बल वगैरा दे दिये । मौसम का मिज़ाज कुछ बदला सा था अब हल्की हल्की बारिश होने लगी थी फिर भी इस जगह पर गर्मी बहुत अधिक थी । हमने साथ में लाया हुआ खाना खाया और सो गए क्योंकि सफर लम्बा था और थकान से भरा भी ।
सुबह उसी खड्ड में मुंह हाथ धोने के बाद देव दर्शन के लिये गए । मन्दिर के अन्दर गए तो देखा कि एक और चान्दी का छोटा सा द्वार है जिस पर साँप निर्मित थे। इस चान्दी के द्वार के आगे लकड़ी के खम्बों पर टिका थड़ा सा बना था जिस पर गोबर से लिपाई की गई थी। पुजारी ने बताया कि इस चान्दी के द्वार के भीतर एक गुफा है जिसमें एक गज जमीन में गाड़ी है 1 जब हमने गज के बारे में पूछा तो उन्होने बताया कि देव “माहूंनाग” और देव “धमूनीनाग” दो देवता इस खड्ड के दोनों ओर रहते थे जब और सभी देवता पहाड़ों के उपर रहने चले गए तो इन दोनों ने निर्णय लिया कि ये अपने मूल स्थान में ही निवास करेंगे । परंतु देव “धमूनीनाग” अपने निर्णय को भूल कर पहाड़ के उपर रहने चले गये तब देव “माहूंनाग” ने ये गज गाड़ कर अपने पहाड़ को उनसे भी ऊंचा कर दिया ।
ये “माहूंनाग” दानी राजा “कर्ण” हैं और कोई भी इनके द्वार से खाली नहीं जाता है ये सबकी खाली झोली भरते हैं । अनेक दम्पती संतान की चाह लिये इनके द्वार पर मन्नत मांगते हैं और चाह पूरी होने पर बकरे की बलि देते हैं । जो कोई भी सच्चे मन से शीश नवाता है उसे उस चांन्दी के दरवाजे से नाग के फुंकारने की आवाज सुनाई देती है । उस दिन एक दम्पति अपनी मन्नत पूरी होने पर बकरे की बलि देने आये थे । पूजा शुरू की गई फिर बकरे को लाया गया तो द्वार खुला । हमने भी उस गज के दर्शन किए तो हमारी कल्पना के दर्पण पर हकीकत की तस्वीर उभर आई । पूजा समाप्त होने के बाद पुजारी ने जिसे स्थानीय भाषा में “गूर” कहा जाता है देव की बातें लोगों तक पहुँचाई । उसके बाद पास में स्थित “हत्या माता” की पूजा की गई हमने अपने जीवन में पहली बार हत्या माता के बारे सुना । उन लोगों के अनुसार हत्या माता की पूजा से आप जीवन में की गई हत्या के दोष से मुक्त हो जाते हैं । फिर मन्दिर के बाहर स्थापित “मसाणू” जी की पूजा की गई जो इन पहाड़ी देवताओं के संगी साथी माने जाते हैं ।
अंत में वहां के लोगों से विदा लेकर हम अपने घर की ओर रवाना हो गए अनेक सवालों से घिरे मन के साथ कि क्या सच में कोई देव आपको संतान दे सकता है ? क्या किसी जीव की जिन्दगी इतनी सस्ती है कि आप अपने लिये उसकी बलि चढ़ा दें ? परंतु सच कहें तो देवालय में बैठ कर कोई प्रश्न नहीं उठता मन में । इंसान शून्य में विलीन हो जाता है , अंतस की गहराई में उतरने लगता है , मात्र कुछ समय के लिये ही सही अपनी सांसारिक दुनिया से दूर हो जाता है । शायद यही वो आस्था की शक्ति है जो आज के इस वैज्ञानिक युग मे भी हम इन संस्कृतियों से जुड़े हैं और बन्धे हैं भक्ति की डोर से ...............


इस स्थान जाने का उपयुक्त मौसम ---अप्रैल से जून

                                                                                                                                         सु-मन
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