एक खाली सुबह को अपनी बाहों में भरते हुए सूरज ने
कहा,जानती हो ! कल संध्या में जब मैं रात के आगोश में छिप रहा था तो मैं कितना
शांत अनुभव कर रहा था | इसलिए नहीं कि सारा दिन न चाहकर भी इस धरा पर आग बरसा कर
मैं थक चुका होता हूँ बल्कि इसलिए कि सारा दिन मेरी तपिश को सहन करती इस धरा को
राहत मिल जाती है | ये तरुवर ये पीली पड़ती इसकी डालियाँ , नदी के दामन में सिमटी
ये शिलाएं जब मेरी किरणों के स्पर्श से दहकने लगती हैं , ये पंछी पखेरू जब व्याकुल
हो अपने आशियाने में दुबक कर करते हैं इन्तजार मेरे छिपने का और जब कोई जिंदगी सो
जाती है गहरी नींद मौत के आगोश में तो कितना निरीह होता हूँ मैं उस समय | तब मेरे
भीतर के बिखराव से कितना टूट जाता हूँ मैं ये कोई क्या जाने | संध्या के आगमन में
जब इस सागर में दूर क्षितिज में विलीन हो जाता हूँ मैं तो दिन से विदा लेते हुए भी
आनंदित होता हूँ और नहीं चाहता फिर से उगना | पर..इस समय चक्र में बंधा मैं जकडा
हूँ इस समय के बाहुपाश में | इसलिए मेरी प्रिय सुबह , न चाह कर भी तुम्हे एक और
सुलगते दिन में बदलने फिर से तुम्हें अपनी बाहों मे भर रहा हूँ ...!!
हर रोज मिलन से सकूँ मिले जरुरी तो नहीं... सकूँ
गर हो तो मिलन में राहत हो या तपिश ...सब एक से महसूस होते हैं शायद !
(लिखने की कोई वजह नहीं, बस यूँ ही बेवजह)
सु-मन