सोमवार, 8 नवंबर 2010

‘कनुप्रिया’ .........धरमवीर भारती (1)

‘कनुप्रिया’ .........धरमवीर भारती जी की अमिट कृति जो हमेशा के लिये उन्हें अमर कर गई। कृष्ण के प्रति राधा के आलौकिक प्रेम के हर पहलू को,राधा के मन में पनपते उन्मुक्त भावों को भारती जी बखूबी उकेरा है। बहुत समय से ये अभिलाषा थी कि उनकी इस कृति के कुछ अंश आप सबकी नज़र करूं ।आशा करती हूँ कि आपको मेरा ये प्रयास पसन्द आयेगा.........

पहला गीत

ओ पथ के किनारे खड़े
छायादार पावन अशोक-वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो कि
तुम मेरे चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा में
जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे
तुम को क्या मालूम कि
मैं कितनी बार केवल तुम्हारे लिए-धूल में मिली हूँ
धरती में गहरे उतर जड़ों के सहारे
तु्म्हारे कठोर तने के रेशों में कलियाँ बन, कोंपल बन,सौरभ बन,लाली बन-
चुपके से सो गयी हूँ
कि कब मधुमास आये और तुम कब मेरे
प्रस्फुटन से छा जाओ !

फिर भी तुम्हें याद नहीं आया, नहीं आया,
तब तुम को मेरे इन जावक-रचित पाँवों ने
केवल यह स्मरण करा दिया कि मैं तुम्हीं में हूँ
तुम्हारे ही रेशे-रेशे में सोयी हुई-
और अब समय आ गया कि
मैं तुम्हारी नस-नस में पंख पसार कर उडूँगी
और तुम्हारी डाल-डाल में गुच्छे-गुच्छे लाल-लाल
कलियाँ बन खिलूँगी !
ओ पथ के किनारे खड़े
छायादार पावन अशोक-वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो कि
तुम मेरी ही प्रतीक्षा में
कितने ही जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे !


दूसरा गीत

यह जो अकस्मात्
आज मेरे जिस्म के सितार के
एक-एक तार में तुम झंकार उठे हो-
सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
तुम कब से मुझ में छिपे सो रहे थे।

सुनो, मैं अक्सर अपने सारे शरीर को-
पोर-पोर को अवगुण्ठन में ढँक कर तुम्हारे सामने गयी
मुझे तुम से कितनी लाज आती थी,
मैं ने अक्सर अपनी हथेलियों में
अपना लाज से आरक्त मुँह छिपा लिया है
मुझे तुम से कितनी लाज आती थी
मैं अक्सर तुम से केवल तम के प्रगाढ़ परदे में मिली
जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता था
मुझे तुम से कितनी लाज आती थी,

पर हाय मुझे क्या मालूम था
कि इस वेला जब अपने को
अपने से छिपाने के लिए मेरे पास
कोई आवरण नहीं रहा
तुम मेरे जिस्म के एक-एक तार से
झकार उठोगे
सुनो ! सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
इस क्षण की प्रतीक्षा में तुम
कब से मुझ में छिपे सो रहे थे।

क्रमश:

9 comments:

siddheshwar singh ने कहा…

अपनी प्रिय पुस्तक के चुनिन्दा अंशों को यहाँ देखना सुखकर है !

Deepak chaubey ने कहा…

मेरे एक मित्र जो गैर सरकारी संगठनो में कार्यरत हैं के कहने पर एक नया ब्लॉग सुरु किया है जिसमें सामाजिक समस्याओं जैसे वेश्यावृत्ति , मानव तस्करी, बाल मजदूरी जैसे मुद्दों को उठाया जायेगा | आप लोगों का सहयोग और सुझाव अपेक्षित है |
http://samajik2010.blogspot.com/2010/11/blog-post.html

बेनामी ने कहा…

आपका प्रयास सराहनीय है ...शुभकामनाये|

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अमुपन कृति है भारती जी की ... आपका शुक्रिया ...

निर्मला कपिला ने कहा…

भारती जी की कालजयी रचनायें पढवाने के लिये धन्यवाद।

केवल राम ने कहा…

लगता है हिंदी साहित्य के प्रति समर्पण का भाव है आपके मन में , भारती जी की रचना यहाँ पढ़कर बहुत सकून प्राप्त हुआ ....शुभकामनायें

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

साहित्य की अनमोल धरोहर प्रस्तुत करने के लिए आभार सुमन जी.

shyam gupta ने कहा…

स्तुत्य प्रयास.

निर्मला कपिला ने कहा…

धर्मवीर भारती जी की कालजयी रचना पेअस्तुत करने के लिये धन्यवाद।

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