तीसरा गीत
घाट से लौटते हुए
तीसरे पहर की अलसायी बेला में
मैं ने अक्सर तुम्हें कदम्ब के नीचे
चुपचाप ध्यानमग्न खड़े पाया
मैं न कोई अज्ञात वनदेवता समझ
कितनी बार तुम्हें प्रणाम कर सिर झुकाया
पर तुम खड़े रहे अडिग, निर्लिप्त, वीतराग, निश्चल!
तुम ने कभी उसे स्वीकारा ही नहीं !
दिन पर दिन बीतते गये
और मैं ने तुम्हें प्रणाम करना भी छोड़ दिया
पर मुझे क्या मालूम था कि वह अस्वीकृति ही
अटूट बन्धन बन कर
मेरी प्रणाम-बद्ध अंजलियों में, कलाइयों में इस तरह
लिपट जायेगी कि कभी खुल ही नहीं पायेगी।
और मुझे क्या मालूम था कि
तुम केवल निश्चल खड़े नहीं रहे
तुम्हें वह प्रणाम की मुद्रा और हाथों की गति
इस तरह भा गयी कि
तुम मेरे एक-एक अंग की एक-एक गति को
पूरी तरह बाँध लोगे
इस सम्पूर्ण के लोभी तुम
भला उस प्रणाम मात्र को क्यों स्वीकारते ?
और मुझ पगली को देखो कि मैं
तुम्हें समझती थी कि तुम कितने वीतराग हो
कितने निर्लिप्त !
चौथा गीत
यह जो दोपहर के सन्नाटे में
यमुना के इस निर्जन घाट पर अपने सारे वस्त्र
किनारे रख
मैं घण्टों जल में निहारती हूँ
क्या तुम समझते हो कि मैं
इस भाँति अपने को देखती हूँ ?
नहीं, मेरे साँवरे !
यमुना के नीले जल में
मेरा यह वेतसलता-सा काँपता तन-बिम्ब, और उस के चारों
ओर साँवली गहराई का अथाह प्रसार जानते हो
कैसा लगता है-
मानो यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है
यह तुम हो जो सारे आवरण दूर कर
मुझे चारों ओर से कण-कण, रोम-रोम
अपने श्यामल प्रगाढ़ अथाह आलिंगन में पोर-पोर
कसे हुए हो !
यह क्या तुम समझते हो
घण्टों-जल में-मैं अपने को निहारती हूँ
नहीं, मेरे साँवरे !
क्रमश :
घाट से लौटते हुए
तीसरे पहर की अलसायी बेला में
मैं ने अक्सर तुम्हें कदम्ब के नीचे
चुपचाप ध्यानमग्न खड़े पाया
मैं न कोई अज्ञात वनदेवता समझ
कितनी बार तुम्हें प्रणाम कर सिर झुकाया
पर तुम खड़े रहे अडिग, निर्लिप्त, वीतराग, निश्चल!
तुम ने कभी उसे स्वीकारा ही नहीं !
दिन पर दिन बीतते गये
और मैं ने तुम्हें प्रणाम करना भी छोड़ दिया
पर मुझे क्या मालूम था कि वह अस्वीकृति ही
अटूट बन्धन बन कर
मेरी प्रणाम-बद्ध अंजलियों में, कलाइयों में इस तरह
लिपट जायेगी कि कभी खुल ही नहीं पायेगी।
और मुझे क्या मालूम था कि
तुम केवल निश्चल खड़े नहीं रहे
तुम्हें वह प्रणाम की मुद्रा और हाथों की गति
इस तरह भा गयी कि
तुम मेरे एक-एक अंग की एक-एक गति को
पूरी तरह बाँध लोगे
इस सम्पूर्ण के लोभी तुम
भला उस प्रणाम मात्र को क्यों स्वीकारते ?
और मुझ पगली को देखो कि मैं
तुम्हें समझती थी कि तुम कितने वीतराग हो
कितने निर्लिप्त !
चौथा गीत
यह जो दोपहर के सन्नाटे में
यमुना के इस निर्जन घाट पर अपने सारे वस्त्र
किनारे रख
मैं घण्टों जल में निहारती हूँ
क्या तुम समझते हो कि मैं
इस भाँति अपने को देखती हूँ ?
नहीं, मेरे साँवरे !
यमुना के नीले जल में
मेरा यह वेतसलता-सा काँपता तन-बिम्ब, और उस के चारों
ओर साँवली गहराई का अथाह प्रसार जानते हो
कैसा लगता है-
मानो यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है
यह तुम हो जो सारे आवरण दूर कर
मुझे चारों ओर से कण-कण, रोम-रोम
अपने श्यामल प्रगाढ़ अथाह आलिंगन में पोर-पोर
कसे हुए हो !
यह क्या तुम समझते हो
घण्टों-जल में-मैं अपने को निहारती हूँ
नहीं, मेरे साँवरे !
क्रमश :
10 comments:
सुमन जी
नमस्कार !
आपका प्रयास सराहनीय है ...शुभकामनाये|
बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.....
शुक्रिया ... इस सुन्दर कृति के लिए ...
यह तुम्हारि अस्वीक्रिति ही एक दिन अटूट बंधन बन जायेगी,
सुन्दर भावपूर्ण कविता आभार व बधाई।
ye jo aapne shrinkhala shuru ki hai bahut achha lag raha hai padhkar .... mere blog par to wyastta itni badh gayi hai ki kya kahoon sirf ek hi rachna prakashit kar paaya tha...aapne padhi hi hai....
very good keep it up....
खूबसूरत प्रयास...शानदार रचना..बधाई.
_________________
'शब्द-शिखर' पर पढ़िए भारत की प्रथम महिला बैरिस्टर के बारे में...
बहुत सुंदर रचना ........
भावपूर्ण कविता -- बधाई।
Nice selection.Plz, visit my blog.
is jivnt or sundr lekhn ko meraa prnaam . akhtar khan akela kota rajsthan.
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