रविवार, 10 अक्तूबर 2010

मन के विचार

कहते हैं जीवन में एक ध्येय लेकर चलना चाहिये एक लक्ष्य लेकर, ताकि जीवन में कुछ मुकाम हासिल कर सको , कुछ हो आखिर में जो तुम्हारे जीवन की पूंजी होगी जीवन के अंतिम पड़ाव में तुम्हें लगे कि जीवन में जो सोचा वो कर लिया । पर क्या इंसान इस सोच के साथ ज्यादा समय टिक पाता है..क्या आखिर में वो तृष्णा रहित हो जाता है , क्या उसका चंचल मन ठहर जाता है..वो शून्य मे लीन हो पाता है , शायद नहीं इंसान की इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं होती। एक कड़ी है बस जो हर इच्छा को..हर अभीप्सा को..हर चाह को एक दूसरे से जोड़े है एक की पूर्ति दूसरे के होने का सबब बन जाती है बस और कुछ नही होता । भावों का ताना बाना बुनता मन जकड़ लेता है अपने जाल में और हम बस देखते रहते हैं उसके बुने मायाजाल को जो नशवर है..क्षणिक है..एक तीव्र हवा का झोंका उसे नष्ट कर देगा , उसका अस्तित्व मिटा देगा । तो क्या वो ध्येय..वो लक्ष्य.. भी उसके मन की ही उपज नहीं ,एक दबी सी चाह नहीं जो सारी उम्र इंसान का पीछा नही छोड़ती..हर क्षण उसे जकड़े रहती है अपने बाहुपाश में !!
                                                                                     
                                                                                      सु-मन

14 comments:

बंटी "द मास्टर स्ट्रोक" ने कहा…

http://chorikablog.blogspot.com/2010/10/blog-post_2117.html

बंटी "द मास्टर स्ट्रोक" ने कहा…

उत्तम लेखन ...
कृपया इसे पढ़े
http://chorikablog.blogspot.com/2010/10/blog-post_243.html

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice

बेनामी ने कहा…

very nicely written...
sach mein satisfaction not human nature....
our dreams keep on increasing...

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

मन की कश्मोकाश को बहुत साध कर उकेरा है.

अच्छा विश्लेषण.

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

लक्ष्य तो निर्धारित करना ही चाहिए...वह पूर्ण हो या न हो यह अलग बात है...लक्ष्य की पूर्ति न होने पर निराश नहीं होना चाहिए...नए उत्साह के साथ पुनः लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाना चाहिए।...आपके इस छोटे से लेख में कविता की ख़ुशबू भी है।

शारदा अरोरा ने कहा…

चलने को कोई बात भी चाहिए , काटों की बाद में कोई आड़ भी तो चाहिए .

शारदा अरोरा ने कहा…

चलने को कोई बात भी चाहिए , काटों की बाड़ में कोई आड़ भी तो चाहिए .
जो आपने लिखा निसंदेह ऐसे बहुत से सवाल उठते हैं ...

बेनामी ने कहा…

सुमन जी,

शुभकामनाये .......इस सुन्दर लेखन पर, बहुत अच्छा लिखा है |
मन तो कभी नहीं ठहरता ...ये मन का स्वभाव ही नहीं है...मन तो द्वैत है .....मन को दबाने से ये और उभरता है.......साक्षी भाव से ही मन पर विजय पाई जा सकती है |

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

सुमन जी, समय और परिस्थितियों के अनुसार लक्ष्य बदल सकते हैं...
लेकिन मनोबल नहीं टूटना चाहिए, इरादा नहीं बदलना चाहिए.
बहुत अच्छे विचार पढ़ने को मिले, बधाई.

Narendra Vyas ने कहा…

सुमन जी आपने मन के द्वंद्व को बहुत अच्छे से व्यक्त किया है.! पर जीवन में लक्ष्य का होना ही जीवन का संबल है, गति है.. उत्साह और चाह अगर नहीं होंगे तो जीवन की गति संभव नहीं होगी..! मन के जीते जीत है..मन के हारे हार..!

shyam gupta ने कहा…

बहुत सही कहा इमरान ने---साक्षी भाव, यही है यही है....

--जीवन का तो एक ही ध्येय होता है मोक्ष, मानव को तो साधन निश्चित करना होता है, सत्साधन से सभी लक्ष्य स्वतः ही प्राप्त होते हैं। मन को साक्षी भाव से रखकर कर्म ही श्रेष्ठ साधन है।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

bahut sahi aalekh

Manav Mehta 'मन' ने कहा…

"न कर बन्दे कोई इच्छा, कब ...तक खुद को छ्लायेगा,
इक दिन ये मिट्टी का खिलौना, मिट्टी ही हो जाएगा.."


सुमन, अगर मनुष्य ने इन पंक्तियों को पहचान लिया तो बार बार इच्छा नहीं करेगा, परन्तु ऐसा नहीं हो सकता ये मैं भी जनता हूँ तुम भी..ये मनुष्य का स्वाभाविक गुण है...एक इच्छा पूरी होने के बाद दूसरी इच्छा खुद-ब-खुद पैदा हो जाती है..

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