गुरुवार, 18 सितंबर 2014

कत्ल-ए-नज़्म















...लिखती हूँ
मिटा देती हूँ
खुद अपने लफ्ज़ों को... 

...करती हूँ
कत्ल-ए-नज़्म
यूँ खुद को सजा देती हूँ !!


सु-मन

16 comments:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अपने शब्दों का क़त्ल ... एक तरहकी सजा तो है ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

भावप्रणव सुन्दर क्षणिकाएँ।

प्रभात ने कहा…

सही कहा है आपने !

yashoda Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना शनिवार 20 सितम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

WAAH....

Yogi Saraswat ने कहा…

शब्द और विचारों को कभी मरने नही देना चाहिए ! नज़्म अच्छी है

Rewa Tibrewal ने कहा…

Sach kaha

Sadhana Vaid ने कहा…

ओह ! कितनी मार्मिक ! बहुत सुन्दर !

विभूति" ने कहा…

कोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति .....

Neeraj Neer ने कहा…

बहुत सुंदर :)

induravisinghj ने कहा…

ह्रदय स्पर्शी !

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बहुत ही बढ़िया

सादर

Rohitas Ghorela ने कहा…

अपने आप को मिटाने ने में पल भर भी नही लगता और बनाने में पूरी जिन्दगी।

निहायती खुबसुरत रचना

Unknown ने कहा…

waaah

प्रेम सरोवर ने कहा…



आपकी रचना के हरेक अल्फाज मन में समा गए। आपके भावों की कद्र करते हुए
आपके जज्बे को सलाम करता हूं। शुभ रात्रि।

Onkar ने कहा…

बहुत खूब

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